आजकल बहुत लोग भारतमे रामराज्य स्थापित हो ऐसी अपेक्षा रखते नजर आते है. सचमुच रामराज्य मे ऐसी कौन सी विशेषताए थी की, जिसके कारण आज भी लोकराज्य के बदले कुछ लोग रामराज्य की अपेक्षा रखते है. श्री राम के प्रति आदरभाव रखने वाले ऐसे लोगो से जब पुछा जाता है तब पता चलता है की, ज्यादातर ऐसे रामभक्तोने तो रामायण पढी हि नहि होती..!! राम और रामायण के प्रति रामभक्तो की ऐसी अज्ञानता रूपी उदासीनता देखकर दु:खद आश्चर्य होता है.
ऐसे रामभक्तो के पास जो भी कुछ प्राथमिक माहिती होती है, वह भी कोइ कथाकार द्वारा कही गयी रामकथा से ही प्राप्त की गयी होती है. विद्वानो के मंतव्यो के अनुसार विश्व मे करीब दो हजार प्रकार की रामायण है. जिनमे से महर्षि वाल्मिकी रचित रामायण को सबसे पुरानी मानी जाती है. किंतु भारतमे आज कथाकारो ऐसी प्राचीन और मुख्य मानी जाने वाली महर्षि वाल्मिकी रचित रामायण की कथा क्यों नहि करते..?!! वर्तमान समयमे ज्यादातर रामकथाकार तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरित मानस’ की ही कथा क्यों कर रहे है..?!! महर्षि वाल्मिकी रचित रामायण की कथा न करनेवाले ऐसे कथाकारो को श्री राम और रामभक्तो के द्रोहि कहा जा शकता है या नहि..?!!
आज भारतमे रामराज्य प्रस्थापित होता है तो कैसा परिवर्तन आ शकता है..?!! इसका उत्तर तो हमे श्री राम के द्वारा की गयी शुद्र शंबूक की हत्या के प्रसंग से ही प्राप्त हो शकता है. धर्मशास्त्रमे चार युगो का वर्णन है, - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग. ऐसे धर्म शास्त्र अनुसार श्री राम त्रेता युगमे हुए थे. त्रेतायुग मे तो केवल ब्राह्मणोको और क्षत्रियो को ही तप या भक्ति करने का अधिकार था. जबकी वैश्य, शुद्र और वर्णबाह्य गिने जाने वाले लोगो को तो ऐसा धार्मिक अधिकार था ही नहि..!! मनुस्मृति नामक धर्मग्रंथ मे तो केवल जनोइ पहनने वाले को ही द्विज याने की सवर्ण बताया गया है..!!
त्रेतायुग की ऐसी कट्टर जातिवादी प्रणालि का पालन शुद्र शंबूक ने न किया. इसलिये राजगुरु वशिष्ठ के आदेश से श्री राम ने शुद्र शंबूक की हत्या की थी. अब सोचो की भारतमे यदी फिर से रामराज्य का स्थापन होता है तो, धार्मिक, राजकिय, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रो के उपर बिराजमान शुद्र शंबूक के वर्तमान वारसदार सलामत रह शकेंगे सही..?!! इस विषय मे शुद्रो-अतिशुद्रो के साथ साथ वैश्य और महिलाओ को भी सोचना चाहिये..!! अरे...खुदको मनुष्य समजने वाले सभी को सोचना ही चाहिये....!!!
Friday, February 12, 2010
Monday, February 1, 2010
समाज, धर्म और राष्ट्र को समजे...
विश्व मे हर कोई प्रजा विविध प्रकार की समस्या से पीड़ित है, यह सम्स्याओ से मुक्ति पाने के लिये अपने अपने राष्ट्र के दायरे मे रह कर सभी लोग प्रयत्न कर रहे है. यह सभी समस्याओ मे कुदरत सर्जित समस्या कम और मानव सर्जित समस्या ज्यादा है. भारत को ध्यान मे रखकर हम यहाँ भारत मे रह रहे भारतीयों की ही बात करे तो कुल भारतीयों मे से करीब 83% लोग अपने आपको हिन्दू मानते है. हिन्दू प्रजा भी बहुत सारी समस्या व गलतफहमी से पीड़ित है. जानकर लोग तो अच्छी तरह से जानते ही है की, 'हिंदु' शब्द मूल किसी भी भारतीय भाषा का शब्द नहीं है, बल्कि फारसी भाषा का एक अपमानजनक अर्थवाला विदेशी शब्द है. विशेषत: कथित हिन्दु प्रजा मे समाज, धर्म और राष्ट्र के बारे मे बहुत सारी गलतफहमियां व समस्या प्रवर्तमान है.
हिन्दु प्रजा मे से ज्यादातर लोग प्राचीन असमानता सभर वर्ण व्यवथा मे विश्वास रखते है. हिन्दु प्रजा की पहली मुख्य समस्या यह है की, वह वर्ण-जाति (Caste) या समुदाय (Community) को ही समाज (Society) मानने की गंभीर भूल, या साफ़ कहे तो बेवकूफी कर रहे है. इसका उत्तम उदाहरण यह है की, आपको पुरे भारतमे जातिगत सामुदायिक संगठन ठेर-ठेर दिखाई देंगे, और विचित्रता तो तभी लगती है की जब ऐसे ‘जातिगत संगठन’ को ही ‘सामाजिक संगठन’ माना जाता है. उदाहरण के तौर पर हिन्दु समाज की ‘ब्राह्मण जाति’ का संगठन ‘ब्राह्मण समाज’ के नाम से जाना जाता है. वैसे ही हिन्दु समाज के ‘पाटिदार या कुर्मि जाति’ के संगठन को भी ‘पाटिदार या कुर्मि समाज’ का संगठन माना जाता है. ऐसी हरकत से यह होता है की, ‘जातिगत-सामुदायिक हॉल’ को ‘सामाजिक हॉल’ के नाम से जाना जाता है. मगर पुरे भारत मे 'हिन्दु समाज' का 'सामाजिक हॉल' शायद कहीं भी नजर नही आयेगा..!! हिन्दु हित चिंतको को यह बात ध्यान मे लेनी चाहिये की, 'जातिय गौरव' लेने से या उनको प्रोत्साहित करने से 'हिन्दु समाज' का कभी भी सही मायने मे निर्माण नही होगा.
ठीक वैसी ही दूसरी गंभीर भूल यह है की, ज्यादातर हिन्दु प्रजा 'संप्रदाय' और 'धर्म' के बीच का तात्विक तफावत समजती ही नहि, या फिर समजने की कोशिस ही नहि करती..!! संप्रदाय तो धर्म की छोटी शाखा है. संप्रदाय कदापि धर्म नहि कहलाता. मगर हिन्दु प्रजा सदीयो से संप्रदाय (Sect) को ही धर्म (Religion) समझने की गंभीर भूल कर रही है. यह गलती भी बड़ी घातक है, क्योकि कई विद्वानों का मानना है की, संप्रदाय (Sect) से धर्म विभाजित होता है. एक अंदाज के मुताबिक भारत मे तकरीबन 22000 से भी ज्यादा संप्रदाय-उप संप्रदाय प्रचलित है. इससे हिन्दु प्रजा सांप्रदायिक ज्यादा और धार्मिक कम लगती है. इस तरह कभी भी सही मायने मे हिन्दू धर्म का निर्माण होना संभव नहीं है.
और तीसरी भूल, जो सिर्फ हिन्दू प्रजा की ही नहीं, बल्कि सभी भारतीयों की है, जो अभी अभी ज्यादा उभर के बाहर आई है,- वह है प्रांतीय गौरव लेना, जैसे की हम गुजराती है, हम मराठी है, हम बंगाली है, हम बिहारी है... इत्यादि. यह प्रांतीय भावना (Provincial Spirit) हमें हमारी राष्ट्रीय भावना (National Spirit) से विचलित करती है. आज कल हमारे लघु दृष्टि वाले राजकिय नेता प्रांतिय भावना के ब्युगल जोर शोर से फुंकते रहते है. इन प्रांतिय भावना के ब्युगलो के शोर शराबे मे राष्ट्रिय भावना वाले लोगो की आवाज दब जाती है. यह दम्भी और स्वार्थि मनोवृति वाले तथाकथित लोक प्रतिनिधियो को कौन समझाये की, समय और संजोग को ध्यान मे रखकर आपस मे सदीयो तक लडने वाले युरोप के छोटे छोटे राष्ट्र अपने हित को ध्यान मे रखकर एक हो गये, और उन्होंने 'युरो संघ' का निर्माण किया. और हम एक राज्य (प्रांत) के कइ टूकडे कर रहे है. क्या ऐसा करने से हमारा राष्ट्र मजबुत व समृध्ध होता है..?!!
सिर्फ राष्ट्रियता को अर्थात राष्ट्रवाद को ध्यान मे रखकर मैने मेरे मौलिक विचार रखे है, सच पुछे तो मुझे तो राष्ट्रियता से ज्यादा दिलचस्पी वैश्विकता मे है. मे पहले वैश्विक मानववादी विचारधारा का ही समर्थक हुं, कोइ मानवीय और नैतिकता के मुल्यो को ध्यान मे रखकर 'विश्व सरकार' बनाने की बात रखे तो मे उनसे सहमत हुं.
हिन्दु प्रजा मे से ज्यादातर लोग प्राचीन असमानता सभर वर्ण व्यवथा मे विश्वास रखते है. हिन्दु प्रजा की पहली मुख्य समस्या यह है की, वह वर्ण-जाति (Caste) या समुदाय (Community) को ही समाज (Society) मानने की गंभीर भूल, या साफ़ कहे तो बेवकूफी कर रहे है. इसका उत्तम उदाहरण यह है की, आपको पुरे भारतमे जातिगत सामुदायिक संगठन ठेर-ठेर दिखाई देंगे, और विचित्रता तो तभी लगती है की जब ऐसे ‘जातिगत संगठन’ को ही ‘सामाजिक संगठन’ माना जाता है. उदाहरण के तौर पर हिन्दु समाज की ‘ब्राह्मण जाति’ का संगठन ‘ब्राह्मण समाज’ के नाम से जाना जाता है. वैसे ही हिन्दु समाज के ‘पाटिदार या कुर्मि जाति’ के संगठन को भी ‘पाटिदार या कुर्मि समाज’ का संगठन माना जाता है. ऐसी हरकत से यह होता है की, ‘जातिगत-सामुदायिक हॉल’ को ‘सामाजिक हॉल’ के नाम से जाना जाता है. मगर पुरे भारत मे 'हिन्दु समाज' का 'सामाजिक हॉल' शायद कहीं भी नजर नही आयेगा..!! हिन्दु हित चिंतको को यह बात ध्यान मे लेनी चाहिये की, 'जातिय गौरव' लेने से या उनको प्रोत्साहित करने से 'हिन्दु समाज' का कभी भी सही मायने मे निर्माण नही होगा.
ठीक वैसी ही दूसरी गंभीर भूल यह है की, ज्यादातर हिन्दु प्रजा 'संप्रदाय' और 'धर्म' के बीच का तात्विक तफावत समजती ही नहि, या फिर समजने की कोशिस ही नहि करती..!! संप्रदाय तो धर्म की छोटी शाखा है. संप्रदाय कदापि धर्म नहि कहलाता. मगर हिन्दु प्रजा सदीयो से संप्रदाय (Sect) को ही धर्म (Religion) समझने की गंभीर भूल कर रही है. यह गलती भी बड़ी घातक है, क्योकि कई विद्वानों का मानना है की, संप्रदाय (Sect) से धर्म विभाजित होता है. एक अंदाज के मुताबिक भारत मे तकरीबन 22000 से भी ज्यादा संप्रदाय-उप संप्रदाय प्रचलित है. इससे हिन्दु प्रजा सांप्रदायिक ज्यादा और धार्मिक कम लगती है. इस तरह कभी भी सही मायने मे हिन्दू धर्म का निर्माण होना संभव नहीं है.
और तीसरी भूल, जो सिर्फ हिन्दू प्रजा की ही नहीं, बल्कि सभी भारतीयों की है, जो अभी अभी ज्यादा उभर के बाहर आई है,- वह है प्रांतीय गौरव लेना, जैसे की हम गुजराती है, हम मराठी है, हम बंगाली है, हम बिहारी है... इत्यादि. यह प्रांतीय भावना (Provincial Spirit) हमें हमारी राष्ट्रीय भावना (National Spirit) से विचलित करती है. आज कल हमारे लघु दृष्टि वाले राजकिय नेता प्रांतिय भावना के ब्युगल जोर शोर से फुंकते रहते है. इन प्रांतिय भावना के ब्युगलो के शोर शराबे मे राष्ट्रिय भावना वाले लोगो की आवाज दब जाती है. यह दम्भी और स्वार्थि मनोवृति वाले तथाकथित लोक प्रतिनिधियो को कौन समझाये की, समय और संजोग को ध्यान मे रखकर आपस मे सदीयो तक लडने वाले युरोप के छोटे छोटे राष्ट्र अपने हित को ध्यान मे रखकर एक हो गये, और उन्होंने 'युरो संघ' का निर्माण किया. और हम एक राज्य (प्रांत) के कइ टूकडे कर रहे है. क्या ऐसा करने से हमारा राष्ट्र मजबुत व समृध्ध होता है..?!!
सिर्फ राष्ट्रियता को अर्थात राष्ट्रवाद को ध्यान मे रखकर मैने मेरे मौलिक विचार रखे है, सच पुछे तो मुझे तो राष्ट्रियता से ज्यादा दिलचस्पी वैश्विकता मे है. मे पहले वैश्विक मानववादी विचारधारा का ही समर्थक हुं, कोइ मानवीय और नैतिकता के मुल्यो को ध्यान मे रखकर 'विश्व सरकार' बनाने की बात रखे तो मे उनसे सहमत हुं.
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