Monday, February 1, 2010

समाज, धर्म और राष्ट्र को समजे...

विश्व मे हर कोई प्रजा विविध प्रकार की समस्या से पीड़ित है, यह सम्स्याओ से मुक्ति पाने के लिये अपने अपने राष्ट्र के दायरे मे रह कर सभी लोग प्रयत्न कर रहे है. यह सभी समस्याओ मे कुदरत सर्जित समस्या कम और मानव सर्जित समस्या ज्यादा है. भारत को ध्यान मे रखकर हम यहाँ भारत मे रह रहे भारतीयों की ही बात करे तो कुल भारतीयों मे से करीब 83% लोग अपने आपको हिन्दू मानते है. हिन्दू प्रजा भी बहुत सारी समस्या व गलतफहमी से पीड़ित है. जानकर लोग तो अच्छी तरह से जानते ही है की, 'हिंदु' शब्द मूल किसी भी भारतीय भाषा का शब्द नहीं है, बल्कि फारसी भाषा का एक अपमानजनक अर्थवाला विदेशी शब्द है. विशेषत: कथित हिन्दु प्रजा मे समाज, धर्म और राष्ट्र के बारे मे बहुत सारी गलतफहमियां व समस्या प्रवर्तमान है.

हिन्दु प्रजा मे से ज्यादातर लोग प्राचीन असमानता सभर वर्ण व्यवथा मे विश्वास रखते है. हिन्दु प्रजा की पहली मुख्य समस्या यह है की, वह वर्ण-जाति (Caste) या समुदाय (Community) को ही समाज (Society) मानने की गंभीर भूल, या साफ़ कहे तो बेवकूफी कर रहे है. इसका उत्तम उदाहरण यह है की, आपको पुरे भारतमे जातिगत सामुदायिक संगठन ठेर-ठेर दिखाई देंगे, और विचित्रता तो तभी लगती है की जब ऐसे ‘जातिगत संगठन’ को ही ‘सामाजिक संगठन’ माना जाता है. उदाहरण के तौर पर हिन्दु समाज की ‘ब्राह्मण जाति’ का संगठन ‘ब्राह्मण समाज’ के नाम से जाना जाता है. वैसे ही हिन्दु समाज के ‘पाटिदार या कुर्मि जाति’ के संगठन को भी ‘पाटिदार या कुर्मि समाज’ का संगठन माना जाता है. ऐसी हरकत से यह होता है की, ‘जातिगत-सामुदायिक हॉल’ को ‘सामाजिक हॉल’ के नाम से जाना जाता है. मगर पुरे भारत मे 'हिन्दु समाज' का 'सामाजिक हॉल' शायद कहीं भी नजर नही आयेगा..!! हिन्दु हित चिंतको को यह बात ध्यान मे लेनी चाहिये की, 'जातिय गौरव' लेने से या उनको प्रोत्साहित करने से 'हिन्दु समाज' का कभी भी सही मायने मे निर्माण नही होगा.

ठीक वैसी ही दूसरी गंभीर भूल यह है की, ज्यादातर हिन्दु प्रजा 'संप्रदाय' और 'धर्म' के बीच का तात्विक तफावत समजती ही नहि, या फिर समजने की कोशिस ही नहि करती..!! संप्रदाय तो धर्म की छोटी शाखा है. संप्रदाय कदापि धर्म नहि कहलाता. मगर हिन्दु प्रजा सदीयो से संप्रदाय (Sect) को ही धर्म (Religion) समझने की गंभीर भूल कर रही है. यह गलती भी बड़ी घातक है, क्योकि कई विद्वानों का मानना है की, संप्रदाय (Sect) से धर्म विभाजित होता है. एक अंदाज के मुताबिक भारत मे तकरीबन 22000 से भी ज्यादा संप्रदाय-उप संप्रदाय प्रचलित है. इससे हिन्दु प्रजा सांप्रदायिक ज्यादा और धार्मिक कम लगती है. इस तरह कभी भी सही मायने मे हिन्दू धर्म का निर्माण होना संभव नहीं है.

और तीसरी भूल, जो सिर्फ हिन्दू प्रजा की ही नहीं, बल्कि सभी भारतीयों की है, जो अभी अभी ज्यादा उभर के बाहर आई है,- वह है प्रांतीय गौरव लेना, जैसे की हम गुजराती है, हम मराठी है, हम बंगाली है, हम बिहारी है... इत्यादि. यह प्रांतीय भावना (Provincial Spirit) हमें हमारी राष्ट्रीय भावना (National Spirit) से विचलित करती है. आज कल हमारे लघु दृष्टि वाले राजकिय नेता प्रांतिय भावना के ब्युगल जोर शोर से फुंकते रहते है. इन प्रांतिय भावना के ब्युगलो के शोर शराबे मे राष्ट्रिय भावना वाले लोगो की आवाज दब जाती है. यह दम्भी और स्वार्थि मनोवृति वाले तथाकथित लोक प्रतिनिधियो को कौन समझाये की, समय और संजोग को ध्यान मे रखकर आपस मे सदीयो तक लडने वाले युरोप के छोटे छोटे राष्ट्र अपने हित को ध्यान मे रखकर एक हो गये, और उन्होंने 'युरो संघ' का निर्माण किया. और हम एक राज्य (प्रांत) के कइ टूकडे कर रहे है. क्या ऐसा करने से हमारा राष्ट्र मजबुत व समृध्ध होता है..?!!

सिर्फ राष्ट्रियता को अर्थात राष्ट्रवाद को ध्यान मे रखकर मैने मेरे मौलिक विचार रखे है, सच पुछे तो मुझे तो राष्ट्रियता से ज्यादा दिलचस्पी वैश्विकता मे है. मे पहले वैश्विक मानववादी विचारधारा का ही समर्थक हुं, कोइ मानवीय और नैतिकता के मुल्यो को ध्यान मे रखकर 'विश्व सरकार' बनाने की बात रखे तो मे उनसे सहमत हुं.

1 comment:

  1. राष्ट्रीय भावना और प्रांतीय भावना के बीच के अंतर को अभी तक हम पाट नहीं पायें हैं. हमारे देश के कर्णधारों ने इसका जमकर फायदा उठाया है. वोट की राजनीति नें इस आग में घी का काम किया है. आज़ादी का मतलब भी राष्ट्रीय-अवकाश तक सिमट कर रहगया है और वैश्विकता केवल अंग्रेजी-भाषा तक. "यूरोप-संघ" का प्रयास-प्रयोग अच्छा रह, जब की "सार्क-संघठन" को कश्मीर निगल गया.

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